राजस्थान का इतिहास 5000 वर्ष पुराना है। राजस्थान के इतिहास को तीन भागो में विभाजित किया जा सकता है
- प्राचीन काल
- मध्यकालीन समय
- आधुनिक काल
प्राचीन काल, 1200 AD तक – राजस्थान का इतिहास
राजपूत वंश की उत्पत्ति हुई और 700 AD से ही वे राजस्थान के विविध भागो में रहने लगे थे। इससे पहले (राजस्थान का इतिहास), राजस्थान बहुत से गणराज्यो का भाग रह चूका था। यह मौर्य साम्राज्य का भी भाग रह चूका था। इस क्षेत्र पर कब्ज़ा करने वाले मुख्य गणराज्यो में मालवा, अर्जुन्या, योध्या, कुशान, सका सत्रप, गुप्ता और हंस शामिल थे।
भारतीय इतिहास में राजपूतों का प्रभुत्व आठवी और बारहवी शताब्दी AD के समय देखा गया था। 750 से 1000 AD के समय में प्रतिहार ने राजस्थान और उत्तरी भारत के ज्यादातर क्षेत्र पर शासन किया था। 1000 से 1200 AD के बीच राजस्थान को चालुक्य, परमार और चौहान के बीच संघर्ष करना पड़ा।
मध्यकालीन समय, 1201-1707
इसवी सन 1200 AD में राजस्थान का कुछ भाग मुस्लिम शासको के कब्जे में आ गया था। उनकी शक्ति के केंद्रीय स्थानों में नागौर और अजमेर शामिल थे। रण थम्बोर भी अधीनता के तहत ही था। 13 वी शताब्दी AD (राजस्थान का इतिहास)के शुरू में, राजस्थान का सबसे मुख्य और शक्तिशाली राज्य, मेवाड़ था।
आधुनिक समय, 1707-1947
मुग़ल सम्राट के कब्ज़ा करने से पहले राजस्थान कभी भी राजनितिक रूप से एकता के सूत्र में नही बंधा। मुग़ल सम्राट अकबर ने राजस्थान में एकीकृत सिद्धता का निर्माण करवाया। 1707 के बाद मुग़ल शक्तियां कम होने लगी और उनका प्रभाव भी कम होने लगा। मुग़ल साम्राज्य के पतन होते ही मराठा साम्राज्य ने राजस्थान पर आँख जमा ली। 1755 में उन्होंने अजमेर पर कब्ज़ा कर लिया। इसके बाद 19 वी शताब्दी के शुरू में पिंडारी द्वारा हमला किया गया।
राजस्थान में इतिहास के प्रमुख स्रोत
राजस्थान में प्राचीन दुर्गों, मंदिरों, सरोवरों, बावड़ियों एवं महत्वपूर्ण भवनों की दीवारों, देव प्रतिमाओं, लाटों एवं विजय स्तंभों आदि पर राजाओं, दानवीरों, सेठों और विजेता योद्धाओं द्वारा समय-समय पर उत्कीर्ण करवाये गये शिलालेख मिलते हैं। ये लाखों की संख्या में हैं। इनमें से कुछ प्रसिद्ध एवं महत्वपूर्ण शिलालेखों की जानकारी यहाँ दी जा रही है। अशोक के शिलालेख खरोष्ठी लिपि एवं ब्राह्मी भाषा में हैं। उसके बाद के शिलालेख संस्कृत एवं राजस्थानी भाषा में हैं। मुस्लिम शासकों के शिलालेख फारसी भाषा एवं अरबी लिपि में मिलते हैं।
गोठ मांगलोद शिलालेख: नागौर जिले के गोठ मांगलोद गाँव में स्थित दधिमती माता मंदिर में उत्कीर्ण अभिलेख 608 ई. का माना जाता है। पं.रामकरण आसोपा के अनुसार इस शिलालेख पर गुप्त संवत् की तिथि संवत्सर सतेषु 289 श्रावण बदि 13 अंकित है। यदि यह गुप्त संवत् है तो यह राजस्थान में अब तक प्राप्त सबसे प्राचीन शिलालेख है। विजयशंकर श्रीवास्तव ने इसे हर्ष संवत् की तिथि माना है। यदि यह हर्ष संवत् है तो यह शिलालेख 895 ई. का है।
अपराजित का शिलालेख: 661 ई. का यह शिलालेख नागदे गाँव के निकट कुडेश्वर के मंदिर की दीवार पर अंकित है। इससे सातवीं शती के मेवाड़ की धार्मिक स्थिति के बारे में जानकारी मिलती है। इस युग में विष्णु मंदिरों का निर्माण काफी प्रचलित था।
मण्डोर का शिलालेख: 685 ई. का यह शिलालेख मण्डोर के पहाड़ी ढाल में एक बावड़ी में खुदा हुआ है। इस लेख से ज्ञात होता है कि उस समय विष्णु तथा शिव की उपासना प्रचलित थी।
मान मोरी का शिलालेख: 8वीं ई. का यह शिलालेख चित्तौड़ के निकट मानसरोवर झील के तट पर एक स्तंभ पर उत्कीर्ण था। इसकी खोज कर्नल टॉड ने की थी। इस लेख से उस समय के राजाओं द्वारा लिये जाने वाले करों, युद्ध में हाथियों के प्रयोग, शत्रुओं को बंदी बनाये जाने तथा उनकी स्त्रियों की देखभाल की उचित व्यवस्था किये जाने के बारे में जानकारी दी गई है। इस लेख से उस समय की सामाजिक स्थिति की भी जानकारी होती है। उस समय तालाब बनवाना धर्मिक कार्य माना जाता था।
घटियाला के शिलालेख: 861 ई. के इन शिलालेखों में मग जाति के ब्राह्मणों का वर्णन है। इन्हें शाकद्वीपीय ब्राह्मण भी कहा जाता है जो ओसवालों के आश्रित रहकर जीवन यापन करते थे। इन लेखों से तत्कालीन वर्ण व्यवस्था पर प्रकाश पड़ता है।
ओसियां का शिलालेख: 956 ई. के इस शिलालेख से ज्ञात होता है कि उस समय समाज चार प्रमुख वर्णों- ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य तथा शूद्र में विभाजित था।
बिजोलिया का स्तंभ लेख: 1170 ई. का यह शिलालेख बिजोलिया के पार्श्वनाथ मंदिर के निकट एक चट्टान पर उत्कीर्ण है। इस पर संस्कृत भाषा में 32 श्लोक उत्कीर्ण हैं। इसमें सांभर एवं अजमेर के चौहान शासकों की वंशावली तथा उनके द्वारा शासित प्रमुख नगरों के प्राचीन नाम दिये गये हैं।
चौखा का शिलालेख: 1273 ई. का यह शिलालेख उदयपुर के निकट चौखा गाँव के एक मंदिर पर उत्कीर्ण है। इस पर संस्कृत भाषा में 51 श्लोक उत्कीर्ण हैं। इसमें गुहिल वंशीय शासकों की वंशावली तथा उस समय के धार्मिक रीति रिवाजों की जानकारी दी गई है।
रसिया की छतरी का शिलालेख: 1274 ई. का यह शिलालेख चित्तौड़ के राजमहलों के द्वार पर उत्कीर्ण है। इसमें गुहिल वंशीय शासकों की वंशावली तथा उस समय के सामाजिक एवं धार्मिक रीति रिवाजों की जानकारी दी गई है।
कीर्ति स्तंभ प्रशस्ति: 1460 ई. यह कीर्ति स्तंभ प्रशस्ति शिलालेख चित्तौड़ दुर्ग में निर्मित कीर्ति स्तंभ के पास स्थित है। इसमें मेवाड़ के शासक बापा से लेकर कुंभा तक की उपलब्ध्यिों तथा कुंभा द्वारा निर्मित भवनों दुर्गों, मंदिरों, जलाशयों तथा कुंभा के समय में रचित ग्रंथों की जानकारी दी गई है।
आबू का शिलालेख: आबू पर्वत पर लगे 1285 ई. के इस शिलालेख में बापा रावल से लेकर समरसिंह तक के मेवाड़ शासकों, आबू की वनस्पति और उस समय के धार्मिक रीति रिवाजों की जानकारी दी गई है।
देलवाड़ा का शिलालेख: 1434 ई. का यह शिलालेख संस्कृत एवं राजस्थानी भाषा में लिखा गया है। इसमें 14वीं शताब्दी की राजनीतिक , आर्थिक एवं धार्मिक स्थिति, तत्कालीन भाषा, कर एवं मुद्रा (टंक) की जानकारी दी गई है।
शृंगी ऋषि का शिलालेख: 1428 ई. का यह शिलालेख उदयपुर जिले में एकलिंगजी से 6 मील दूर शृंगी ऋषि नामक स्थान पर संस्कृत भाषा में उत्कीर्ण है। इसमें हम्मीर से लेकर मोकल तक के मेवाड़ शासकों की उपलब्धियां दी गई हैं तथा राणा हम्मीर के युद्धों, मंदिरों के निर्माण, दानशीलता, भीलों की तत्कालीन स्थिति, मेवाड़-गुजरात तथा मालवा के राजनीतिक सम्बन्धों की जानकारी दी गई है।
समिधेश्वर के मंदिर का शिलालेख: 1428 ई. का यह शिलालेख चित्तौड़ के समिधेश्वर मंदिर की दीवार पर उत्कीर्ण है। इस अभिलेख से तत्कालीन शिल्पियों, सामाजिक रीति रिवाजों तथा महाराणा मोकल द्वारा विष्णु के मंदिर के निर्माण आदि की जानकारी दी गई है।
रणकपुर प्रशस्ति: 1439 ई. का यह शिलालेख रणकपुर के चौमुखा जैन मंदिर में एक लाल पत्थर पर उत्कीर्ण है। इसमें बापा से कुंभा तक की वंशावली तथा तत्कालीन मुद्रा (नाणक) की जानकारी दी गई है।
कुंभलगढ़ प्रशस्ति: 1460 ई. का यह शिलालेख कुंभलगढ़ दुर्ग में उत्कीर्ण है। इसमें मेवाड़ नरेशों की वंशावली, महाराणा कुंभा की उपलब्धियों, कंुभा के समय के बाजारों, मंदिरों, राजमहलों तथा युद्धों की जानकारी दी गई है।
जमवा रामगढ़ का प्रस्तर लेख: 1613 ई. के इस शिलालेख से ज्ञात होता है कि राजा मान सिंह अपने पिता भगवानदास का दत्तक पुत्र था।
रायसिंह की बीकानेर प्रशस्ति: 1594 ई. का यह शिलालेख बीकानेर दुर्ग के मुख्य द्वार पर संस्कृत भाषा में उत्कीर्ण है। इसमें बीका से लेकर रायसिंह तक के बीकानेर शासकों की उपलब्धियों,रायसिंह के कार्यों एवं भवन निर्माण आदि की जानकारी प्राप्त होती है।
जगन्नाथ राय की प्रशस्ति: 1652 ई. का यह शिलालेख उदयपुर के जगदीश मंदिर के प्रवेश द्वार पर उत्कीर्ण है। इसमें मेवाड़ के इतिहास, मेवाड़ के शासक बप्पा से लेकर महाराणा जगतसिंह तक की उपलब्धियों, राणा प्रताप एवं अकबर के संघर्ष, जगतसिंह की दान प्रवृत्ति तथा तत्कालीन आर्थिक एवं सामाजिक स्थिति का ज्ञान होता है।
राजप्रशस्ति महाकाव्य: 1676 ई. का यह शिलालेख राजसमंद जिले में राजसमुद्र नामक झील की पाल पर 25 काले पत्थर की शिलाओं पर संस्कृत भाषा में उत्कीर्ण है। इसमें महाराणा राजसिंह की उपलब्धियों और तत्कालीन आर्थिक, सामाजिक एवं राजनीतिक स्थिति की विस्तृत जानकारी दी गई है।
ताम्रपत्र
जब शासक किसी महत्वपूर्ण अवसर पर भूमि, गाँव, स्वर्ण एवं रत्न आदि दान देते थे या कोई अनुदान स्वीकृत करते थे, तब वे इस दान या अनुदान को ताम्बे की चद्दर पर उत्कीर्ण करवाकर देते थे ताकि पीढ़ियों तक यह साक्ष्य उस परिवार के पास उपलब्ध रहे। हजारों की संख्या में ताम्रपत्र उपलब्ध होते हैं। कुछ दानपत्रों से इतिहास की महत्वपूर्ण कड़ियों को जोड़ने में सहायता मिलती है। अब तक सबसे प्राचीन ताम्रपत्र ई.679 का धूलेव का दानपत्र मिला है। ई.956 का मघनदेव का ताम्रपत्र, ई.1002 का रोपी ताम्रपत्र, ई.1180 का आबू के परमार राजा धारावर्ष का ताम्रपत्र, ई.1185 का वीरपुर का दानपत्र, ई.1194 का कदमाल गाँव का ताम्रपत्र, ई.1206 का आहाड़ का ताम्रपत्र, ई.1259 का कदमाल ताम्रपत्र, ई.1287 का वीरसिंह देव का ताम्रपत्र तथा ई.1437 का नादिया गाँव का ताम्रपत्र प्रमुख हैं।
सिक्के
राजस्थान से मिले पंचमार्का सिक्के, गधैया सिक्के, ढब्बू सिक्के, आहड़ उत्खनन से प्राप्त सिक्के, मालवगण के सिक्के और सीलें, राजन्य सिक्के, यौधेय सिक्के, रंगमहल से प्राप्त सिक्के, सांभर से प्राप्त मुद्रायें, सेनापति मुद्रायें, रेड से प्राप्त सिक्के, मित्र मुद्रायें, नगर मुद्रायें, बैराट से प्राप्त मुद्रायें, गुप्तकालीन सिक्के, गुर्जर प्रतिहारों के सिक्के, चौहानों के सिक्के तथा मेवाड़ी सिक्के राजस्थान के प्राचीन इतिहास को जानने के प्रमुख स्रोत हैं। अजमेर से मिले एक सिक्के में एक तरफ पृथ्वीराज चौहान का नाम अंकित है तथा दूसरी तरफ मुहम्मद गौरी का नाम अंकित है। इससे अनुमान होता है कि पृथ्वीराज चौहान को परास्त करने के बाद मुहम्मद गौरी ने उसके सिक्कों को जब्त करके उन्हें अपने नाम से दुबारा जारी किया था।
राजस्थान की विभिन्न रियासतों में भी समय-समय पर विभिन्न सिक्कों का प्रचलन हुआ। इनसे मध्यकाल एवं मध्येतर काल के इतिहास की जानकारी मिलती है। इनमें स्वरूपशाही सिक्के तथा राव अमरसिंह राठौड़ के सिक्के महत्वपूर्ण हैं। मुगलों के शासन काल में कुचामन के ठाकुर को सिक्के ढालने की अनुमति दी गई थी। कुछ लोगों ने नकली कुचामनी सिक्के ढाल कर चला दिये जिससे कुचामनी सिक्का काफी चर्चित रहा।
लिखित इतिहास
राजस्थान के इतिहास की प्राचीन सामग्री संस्कृत तथा प्राकृत भाषाओं में मिलती है। पृथ्वीराज विजय महाकाव्यम् संस्कृत भाषा और कुवलय माला प्राकृत भाषा के अच्छे उदाहरण हैं। उसके बाद मध्यकाल की सामग्री संस्कृत, हिन्दी, राजस्थानी तथा अरबी-फारसी भाषा के ग्रंथों में प्राप्त होती है। राजस्थानी भाषा में लिखे गये ग्रंथ- प्रबंध, ख्यात, वंशावली, वचनिका, गुटके, बेलि, बात, वार्ता, नीसाणी, कुर्सीनामा, झूलणा, झमाल, छप्पय, कवित्त, गीत तथा विगत आदि नामों से प्राप्त होते हैं। कान्हड़दे प्रबंध प्राचीन डिंगल भाषा का अच्छा उदाहरण है।
अरबी फारसी ग्रंथों में विभिन्न लेखकों द्वारा लिखी गई पुस्तकें- तारीख, तबकात, अफसाना आदि के रूप में मिलती हैं। फरिश्ता की लिखी तारीखे फरिश्ता, जियाउद्दीन बरनी की तारीखे फीरोजशाही, अमीर खुसरो की तुगलकनामा, अबुल फजल की आइने अकबरी तथा अकबरनामा, बाबर की लिखी तुजुक ए बाबरी, जहाँगीर की लिखी तुजुक ए जहाँगीरी, गुलबदन की लिखी हुमायूंनामा, आदि प्रमुख अरबी फारसी पुस्तकें हैं। रियासती काल में विभिन्न रियासतों के शासकों द्वारा समय-समय पर जारी किये गये फरमान, रुक्के, खरीते, तहरीरें तथा पट्टे भी तत्कालीन इतिहास जानने के प्रमुख स्रोत हैं।
ब्रिटिश शासन काल में प्रकाशित किये गये गजेटियर, एडमिनिस्ट्रेटिव रिपोर्ट्स, सेंसस (जनगणना), सैटमेंट्स, सर्वे, मेडिकल हवाला, पत्राचार की पत्रावलियां, कोर्ट्स के फैसले, अखबारों की कतरनें, पुलिस डायरियां, फेमीन रिपोर्ट्स, टाउन प्लानिंग रिपोर्ट्स आदि से ब्रिटिश काल के इतिहास को जानने में सहायता मिलती है।
राजस्थान राज्य अभिलेखागार
इतिहास की लिखित सामग्री को सुरक्षित रखने के उद्देश्य से राजस्थान में ई. 1955 में राजस्थान राज्य अभिलेखागार की स्थापना की गयी। इस विभाग का मुख्यालय बीकानेर में तथा शाखायें जयपुर, कोटा, उदयपुर, अलवर, भरतपुर एवं अजमेर में स्थित हैं। इन अभिलेखागारों में ऐतिहासिक, प्रशासनिक, सामाजिक, धार्मिक एवं आर्थिक दृष्टि से उपयोगी एवं दुर्लभ सामग्री संग्रहीत है। इस सामग्री में मुगलकाल और मध्यकाल के अभिलेख, फरमान, निशान, मंसूर, पट्टा, परवाना, रुक्का, बहियां, अर्जियां, खरीता, पानड़ी, तोजी दो वरकी, चौपनिया, पंचांग आदि उपलब्ध हैं। यह सामग्री उर्दू, फारसी, अंग्रेजी, हिंदी, संस्कृत, डिंगल, पिंगल, ढूंढाड़ी, मारवाड़ी, मेवाड़ी, गुजराती, मराठी एवं हाड़ौती आदि भाषाओं में लिखी हुई है।
बीकानेर अभिलेखागार के प्राविधिक खण्ड में 21 राज्यों के अभिलेख 7 संचय शालाओं में सुरक्षित किये गये हैं। जयपुर राज्य के अभिलेख ई. 1622 से 1743 तक उर्दू एवं फारसी में तथा ई. 1830 से 1949 तक के अंग्रेजी भाषा में उपलब्ध हैं। जोधपुर राज्य के अभिलेख ई. 1643 से 1956 तक के मारवाड़ी भाषा में तथा ई. 1890 से 1952 तक अंग्रेजी भाषा में उपलब्ध हैं। कोटा राज्य के अभिलेख ई. 1635 से 1892 तक हाड़ौती भाषा में उपलब्ध हैं।
उदयपुर राज्य के अभिलेख ई. 1884 से 1949 तक मेवाड़ी भाषा में तथा ई. 1862 से 1947 तक अंग्रेजी भाषा में उपलब्ध हैं। बीकानेर राज्य के अभिलेख ई. 1625 से 1956 तक की अवधि के हैं। ये मारवाड़ी, उर्दू, अंग्रेजी और हिंदी में उपलब्ध हैं। इनके अतिरिक्त अलवर, किशनगढ़, बूंदी, सिरोही, भरतपुर, झालावाड़, कुशलगढ़ तथा करौली आदि रजवाड़ों के 19वीं एवं 20वीं शताब्दी के अभिलेख सुरक्षित हैं।
अंग्रेजी शासन के दौरान अजमेर के कमिश्नर एवं चीफ कमिश्नर के कार्यालयों के अभिलेख ई. 1818 से लेकर 1956 तक की अवधि के हैं। स्वतंत्रता आंदोलन के समय प्रजातांत्रिक मांगों को लेकर बनी प्रजापरिषदों एवं प्रजामंडलों के अभिलेख और ई. 1909 से लेकर बाद के समय की समाचार पत्रों की 3000 से अधिक कतरनें भी यहाँ रखी हुई हैं।
मौखिक इतिहास खंड में स्वतंत्रता सेनानियों से लिये गये 216 साक्षात्कार उन्हीं की आवाज में ध्वन्यांकित कर रखे गये हैं। पुस्तकालय खंड में भूतपूर्व रियासतों के गजट, बजट, प्रशासनिक प्रतिवेदन, जनगणना एवं अन्य महत्त्वपूर्ण संदर्भ पुस्तकें उपलब्ध हैं। एक अनुमान के अनुसार बीकानेर के अभिलेखागार में रखे गये दस्तावेजों को यदि धरती पर लम्बाई में फैलाया जाये तो उनकी लम्बाई पाँच लाख फुट होगी।
राज्य अभिलेखागार की उदयपुर शाखा की बख्शीशाला में ताम्रपत्रों की बही दर्शनीय है। इस बही में 1838 ई. में 1294 ताम्रपत्रों के नवीनीकरण करने का उल्लेख है। इन 1294 ताम्रपत्रों में से 1138 ताम्रपत्रों को गोरधनजी ने तथा 156 ताम्रपत्रों को रतना ने खोदा था। ये ताम्रपत्र महाराणा लाखा के काल से आरंभ होकर महाराणा भीमसिंह (ई. 1828) तक के हैं।
अभिलेखागार की कोटा शाखा सूरज पोल स्थिल झाला हाउस में है। इसके तीन मंजिले भवन में कोटा रियासत का 300 वर्ष पुराना अभिलेख विद्यमान है। ये अभिलेख राजस्थान की सबसे कठिन मानी जाने वाली हाड़ौती भाषा में लिखा हुआ है। राज्य में राष्ट्रीय पाण्डुलिपि मिशन के अंतर्गत प्राचीन एवं दुर्लभ ग्रंथों की खोज का काम चल रहा है। इसके तहत नवम्बर 2009 तक राज्य अभिलेखागार ने 21 जिलों में साढ़े सात लाख प्राचीन ग्रंथ खोजे गये हैं। ये ग्रंथ अभिलेखागार में रखे गये हैं।
प्राच्य विद्या प्रतिष्ठान
मध्यकालीन राजस्थान में असंख्य पाण्डुलिपियां संस्कृत, प्राकृत, अपभं्रश, पाली तथा राजस्थानी भाषाओं में विविध विषयों पर लिखी गयीं। वेद, धर्मशास्त्र, पुराण, दर्शन, ज्योतिष, गणित, काव्य, आयुर्वेद, इतिहास, आगम, व्याकरण, तंत्र, मंत्र आदि की पाण्डुलिपियों का लेखन, अलंकरण तथा चित्रण करवाकर व्यक्तिगत संग्रह में संरक्षण की परंपरा पिता से पुत्र को विरासत में मिलती रही और समृद्ध होती रही। पाण्डुलिपियों का यह संग्रह पोथी खाना कहा जाता था। इन पोथियों के संग्रहण के लिये ई. 1955 में राज्य में प्राच्य विद्या प्रतिष्ठान की स्थापना की गई। इसका मुख्यालय जोधपुर में रखा गया। ई. 1961-62 में राजस्थान के विस्तृत क्षेत्र में विकीर्ण सामग्री के संरक्षण की आवश्यकता की दृष्टि से बीकानेर, कोटा, अलवर, उदयपुर, चित्तौड़ में उपशाखाओं की स्थापना की गयी। टोंक में अरबी और फारसी ग्रंथों के संरक्षण के लिये कार्यालय स्थापित हुआ जो अब स्वतंत्र संस्थान के रूप में कार्यरत है।
जोधपुर मुख्यालय: जोधपुर संग्रह में राजस्थानी भाषा के गुटके, बेलि, बात, प्रेमाख्यान, मीरां की पदावली, नरसी जी रो मायरो, राजस्थानी के वीर गीत आदि महत्त्वपूर्ण हैं। इनमें से अनेक चित्रित एवं अलंकृत पाण्डु लिपियां इस प्रतिष्ठान की अमूल्य निधि हैं। अठारहवीं तथा उन्नीसवीं शताब्दी में लिखित बेलि क्रिसन रुकमणि री, कृष्णलीला गुटका, दोहा संयोग सिणगार रा, ढोला मरवण कथा, फूलजी फूलमती री बात और माधवानल कामकंदला चित्रित पाण्डुलिपियां हैं। बेलि क्रिसन रुकमणि अकबर के दरबारी कवि पृथ्वीराज राठौड़ ने सन् 1580 में की थी। इसकी सचित्र प्रति 19वीं शताब्दी की जोधपुर शैली में उपलब्ध है। ताड़पत्र, चर्मपत्र तथा कागज पर चित्रित हस्त लिखित ग्रंथों की संख्या लगभग 1500 है। इनमें श्रीमद्भागवत्, देवी माहात्म्य, कालकाचार्य कथा दक्षिण भारतीय शैली में है। चर्मपत्र पर आर्य महाविद्या नामक बौद्ध ग्रंथ पाल शैली में चित्रित है। पश्चिमी भारतीय या जैन शैली में चित्रित कल्पसूत्र के अनेक पात्र और ग्रंथ हैं जिनमें प्राचीनतम 1485 वि. सं. का है। धर्मशास्त्र, नाटक साहित्य, गद्य-पद्य साहित्य संगीत शास्त्र ज्योतिष के ग्रंथ महत्त्वपूर्ण हैं। हिंदी तथा राजस्थानी में राम स्नेही, नाथ संप्रदाय तथा दादू पंथी संप्रदायों के ग्रंथ प्रचुर संख्या में उपलब्ध हैं। इस संग्रह में कुल 40,988 हस्त लिखित गं्रथ, 981 प्रतिलिपियां तथा 273 फोटो प्रतियां संग्रहीत हैं। फोटो प्रतियां जैन ज्ञान भण्डार जैसलमेर से प्राप्त की गयी हैं। प्राच्य विद्या प्रतिष्ठान के ई.1958 में जोधपुर स्थानांतरण होने के बाद उपशाखाओं में भी ग्रंथ अधिग्रहण तथा संरक्षण का कार्य आरंभ हुआ।
बीकानेर शाखा: गंगागोल्डन जुबली क्लब के स्टेडियम के पास प्राच्य विद्या प्रतिष्ठान द्वारा निर्मित भवन में बीकानेर उपशाखा स्थित है। यहाँ ग्रंथों की संख्या 19,839 है। जोधपुर के बाद यह दूसरा महत्त्वपूर्ण संग्रह है। इस संग्रह की स्थापना जैन आचार्य एवं भक्तों के व्यक्तिगत संग्रहों के दान से हुई थी। इसमें मोतीचंद खजाँची संग्रह तथा जिनचंद्र सूरि संग्रह महत्त्वपूर्ण हैं। इन संग्रहों के सूची पत्र प्रतिष्ठान द्वारा प्रकाशित किये जा चुके हैं। यहाँ के अधिकांश ग्रंथ जैन धर्म के हैं। जैनेत्तर ग्रंथों में न्याय व वेदांत के ग्रंथ महत्त्वपूर्ण हैं।
चित्तौड़ शाखा: चित्तौड़ शाखा के संग्रह का निर्माण वर्ष 1962-63 में मुनि जिन विजय के प्रयासों से हुआ था। चित्तौड़ दुर्ग को जाने वाली सड़क पर यह शाखा स्थित है। श्री लादूराम दुधाड़िया, बी. आर. चौधरी, आर्य मगनजी छगनूजी, बंशीलाल दाधीच, मुनि कांति सागर तथा संतोष यति के व्यक्तिगत संग्रहों से दान में प्राप्त पाण्डुलिपियों से इस संग्रह का निर्माण हुआ है। ये पाण्डु लिपियां संस्कृत, प्राकृत, हिंदी एवं राजस्थानी भाषा की हैं। संस्कृत प्राकृत ग्रंथों के दो सूची पत्र तथा हिंदी-राजस्थानी ग्रंथ का एक सूची पत्र प्रकाशित किया जा चुका है। यहाँ साहित्य ज्योतिष, भक्ति तथा जैन धर्म के 5,426 ग्रंथ उपलब्ध हैं।
जयपुर शाखा: जयपुर शाखा का कार्यालय पुराने विधानसभा भवन के सामने श्री रामचंद्रजी मंदिर में स्थित है। वर्ष 1958 से निरंतर पाण्डुलिपियों एवं पुस्तकों का अधिग्रहण जयपुर के प्रमुख व्यक्तियों एवं संग्रहालयों से किया गया है। इनके सूचीपत्र क्रमशः 1966 तथा 1984 में प्रकाशित हुए। अधिग्रहण किये गये संग्रहों में महाराजा पब्लिक लाइब्रेरी के 1608 हस्तलिखित ग्रंथ तथा व्यक्तिगत संग्रहों में श्री रामकृपालु शर्मा, हरिनारायण विद्याभूषण, विश्वनाथ शारदानंदन, बद्री नारायण फोटोग्राफर तथा जिन धरणेंद्र सूरि के उपासरे के संग्रह सम्मिलित हैं। जयपुर शाखा में लगभग 12,000 ग्रंथ हैं। इन ग्रंथों में धर्मशास्त्र एवं ऐतिहासिक प्रशस्तियां महत्त्वपूर्ण हैं। संस्कृति साहित्य तथा संगीत की दृष्टि से ईश्वर विलास महाकाव्य, संगीत रघुनंदन तथा रागमंजरी उल्लेखनीय हैं। प्रकाशित ग्रंथों में कृष्ण भट्ट का ईश्वर विलास महाकाव्य, जयदेव का घटकर्पूर महाकाव्य, सूत्रधार मण्डन कृत प्रासाद मण्डन और राज वल्लभ महत्त्वपूर्ण हैं। इतिहास एवं संस्कृति के स्रोत के रूप में प्रशस्तियां, कछवाहा राजा मानसिंह के शिला लेख, ग्वालियर दुर्ग के शिला लेख, बालादित्य के शिला लेख महत्त्वपूर्ण हैं।
अलवर शाखा: अलवर की शाखा का प्रांरभ ई. 1840 में अलवर के महाराज विनय सिंह के आश्रय में हुआ था। महाराज के संग्रह से ही इस शाखा का प्रारंभ किया गया। इस संग्रह में अधिकांश ग्रंथ संस्कृत तथा प्राकृत भाषा के हैं। यह शाखा वैदिक एवं दर्शन साहित्य के महत्त्वपूर्ण ग्रंथों के लिये उल्लेखनीय हैं। ऋग्वेद की अब तक अज्ञात आश्वलायन तथा शाखायन संहिता पाठ, गृह्य सूत्र की टीका, न्याय एवं मीमांसा के ग्रंथ इस केंद्र की महत्त्वपूर्ण उपलब्धियां हैं। संस्कृत साहित्य के ग्रंथों में गीत गोविंद की व्याख्या, फाल्गुन शतक, मृगांक शतक तथा नये संस्कृत नाटकों में मुक्ता चरित्र नाटक, रामाभ्युदय नाटक, हृदय विनोद प्रहसन आदि महत्त्वपूर्ण हैं। इनके अतिरिक्त अलंकार एवं छंद शास्त्र के ग्रंथ भी संग्रहीत हैं। इस संग्रह का सूची पत्र प्रकाशित किया जा चुका है।
कोटा शाखा: प्राच्य विद्या प्रतिष्ठान की कोटा शाखा दुर्ग के अंदर स्थित है। इस शाखा का कार्य कोटा राज्य के सरस्वती पुस्तकालय तथा झालावाड़ राज्य के पुस्तकालयों से पाण्डुलिपियों के स्थानांतरण से आरंभ हुआ। इसमें अधिकांश ग्रंथ संस्कृत तथा प्राकृत भाषा के हैं। यह संग्रह पुराण साहित्य के संग्रह के लिये प्रसिद्ध है। कोटा में वल्लभ संप्रदाय के मथुरेशजी का स्थान होने से इस संग्रह में स्रोत साहित्य तथा वल्लभ मत का अणुभाष्य विपुल मात्रा में है। इसके अतिरिक्त साहित्य में सान्द्रकुतूहल नाटक, कीर्ति कौमुदी, नृसिंह चम्पू आदि संस्कृत रचनायें हैं।
उदयपुर शाखा: उदयपुर राजमहल के सरस्वती भण्डार के ग्रंथों के स्थानांतरण से इस शाखा का प्रारंभ वर्ष 1961-62 में हुआ। स्थानांतरण के अतिरिक्त क्रय द्वारा भी यहाँ ग्रंथों का अधिग्रहण किया गया। डॉ. ब्रजमोहन जावलिया के प्रयत्नों से रविशंकर देराश्री के बहुमूल्य ग्रंथ इस संग्रह के लिये प्राप्त किये गये। जावलिया ने संग्रह का सूचीपत्र प्रकाशित किया। इस संग्रह में जीवंधर कृत अमरसार, रणछोड़ भट्ट के अमरकाव्य और राजप्रशस्ति, रघुनाथ कृत जगतसिंह काव्य, सदाशिव नागर का राजरत्नाकर महाकाव्य साहित्यिक एवं ऐतिहासिक दृष्टि से महत्त्वपूर्ण हैं। राजस्थानी भाषा के गं्रथों में रासो ग्रंथ ऐतिहासिक दृष्टि से महत्त्वपूर्ण हैं। उदयपुर संग्रह में सरस्वती भण्डार से प्राप्त सचित्र पाण्डुलिपियां महत्त्वपूर्ण उपलब्धि है। महात्मा हीरानंद द्वारा लिखी गयी तथा मनोहर साहिबदीन तथा कुछ अन्य चित्रकारों द्वारा चित्रित की गयी दूसरी महत्त्वपूर्ण पाण्डुलिपि मतिराम विरचित रसराज है। रीतिकालीन परंपरा में लिखे गये इस ग्रंथ में मतिराम ने श्ंृगार रस एवं नायिका भेद के उद्धरण प्रस्तुत किये हैं। इस चित्रित ग्रंथ में 12 चित्रित पृष्ठ हैं। एक अन्य महत्त्वपूर्ण चित्रित पाण्डुलिपि विक्रम संवत् 1780 की गीत गोविंद है। स्पष्ट एवं सुंदर देवनागरी में लिखी गयी इस पाण्डुलिपि में 108 पृष्ठ और 34 दृष्टांत चित्रित हैं।
अरबी-फारसी शोध संस्थान
टोंक टोंक के अरबी-फारसी शोध संस्थान में अरबी एवं फारसी भाषा की पुस्तकों का दुर्लभ संग्रह है। इसकी स्थापना ई. 1978 में हुई। यहाँ रखी गयी पुस्तकों में औरंगजेब की लिखी आलमगिरी कुरान तथा शाहजहाँ द्वारा लिखवाई गयी ‘कुराने कमाल’ दुर्लभ पुस्तकें हैं।
राजस्थान के इतिहास से सम्बंधित महत्वपूर्ण प्रश्न और उनके उत्तर
- राजस्थान में मिट्टी की मूर्तियां बनाने की हस्तकला का मुख्य केन्द्र है ?
उत्तर. मोलेला (राजसमन्द)
- किस शासक को मेवाड़ की बौद्धिक एवं कलात्मक उन्नति का श्रेय दिया जाता है ?
उत्तर. महाराणा कुंभा को
- व्यास परियोजना का मुख्य उद्देष्य रावी, व्यास, सतलज नदियों क ेजल का उपयोग करना है, यह परियोजना किस राज्य से संबंधित है ?
उत्तर. पंजाब, हरियाणा एवं राजस्थान से
- महाराणा कुंभा द्वारा रचित चार नाटकों में कीर्ति स्तम्भ के अनुसार किस भाषा का प्रयोग किया गया है ?
उत्तर. मेवाड़ी
- बीकानेर के किस शासक ने सुमेलगिरी के युद्ध में शेरषाह की सहायता की ?
उत्तर. राव कल्याणमल ने
- भाखड़ा नांगल नामक बहुउद्देषीय परियोजना किन राज्यों को संयुक्त योजना है ?
उत्तर. पंजाब, हरियाणा एवं राजस्थान
- किस नदी के तल को स्थानीय भाषा में ‘नाली’ कहा जाता है ?
उत्तर. घग्घर नदी को
- खुमाण रासो नामक ग्रंथ की रचना किसने की ?
उत्तर. दलपत सिंह ने
- 23 दिसम्बर 1912 को लार्ड हार्डिंग पर वर्धमान विद्यालय के विद्यार्थी ने बम फेंका, वह था ?
उत्तर. जोरावर सिंह
10.‘संन्यासियों के सुल्तान’ उपनाम से किसे जाना जाता है ?
उत्तर. हमीदुद्दीन नागौरी
- स्वतन्त्रता से पहले राज्य में केवल एक ही हवाई अड्डा था, कहां ?
उत्तर. जोधपुर में
- राजस्थान में हल्दी का सर्वाधिक उत्पादन कहां होता है ?
उत्तर. झाडोल (उदयपुर)
- राजस्थान का वह जिला जिसकी अन्य राज्यों/राज्य से सर्वाधिक लम्बी सीमा स्पर्ष करती है ?
उत्तर. झालावाड़
- अरावली पर्वत की तीसरी ऊँची चैटी ‘देलवाड़ा’ है, जिसकी ऊँचाई 1442 मीटर है, यह किस्म जिले में है ?
उत्तर. सिरोही में
- हन्दी घाटी के युद्ध को किस विद्वान ने ‘खमनौर का युद्ध’ कहा है ?
उत्तर.अंबल फजल ने
- बिनोटा क्या है
उत्तर. दूल्हा-दुल्हन के विवाह की जूतियां
- व्ह कौन सा नृत्य जो बिना किसी वाद्ययंत्र के गरासिया जाति द्वारा सिरोही एवं आबू क्षेत्रों में धीमी गति से किया जाता है ?
उत्तर. वालर नृत्य
- ‘कमल से भरे सरोवर’ किसके चित्रकला शैली के विषय है ?
उत्तर. किशनगढ शैली के
- वे कौन से जिले जहाँ अरावली पर्वत की श्रेणीयाँ अत्यधिक सघन एवं उच्चता को लिए हुए है ?
उत्तर. सिरोही, उदयपुर एवं राजसमंद
- प्रोजेक्ट सरस्वती किससे संबंधित है ?
उत्तर. ओ. एन. जी. सी. द्वारा एक हजार करोड़ रूपए की लागत से जैसलमेर में मीठे भूमिगत जल स्त्रोत खोजने के लिए कुओं से
- आबू के प्रसिद्ध मंदिर लूणवषाही एवं विमलशाही है ?
उत्तर. जैन मंदिर
- धींगा गणगौर प्रसिद्ध है ?
उत्तर. उदयपुर
- निजी क्षेत्र में स्थापित राजस्थान की पहली चीनी मिल ‘दी मेवाड़ शुगर मिल लिमिटेड’ भोपाल सागर (चितौड़गढ) है, यह कब स्थापित हुई ?
उत्तर. 1932 में
- जैम्स एवं ज्वैलरी के लिए विषेष आर्थिक क्षेत्र की स्थापना कहां की गई ?
उत्तर. सीतापुरा (जयपुर) में
- खारी नदी बनास में देवली (टोंक) के निकट मिल जाती है, इस नदी का उद्गम स्त्रोत कहाँ है ?
उत्तर. बिजराल ग्राम की पहाड़ी (देवगढ, राजसमन्द)
- राजस्थान की वह कौन सी झील जो ड्यूक आॅफ कनाॅट से संबंधित है ?
उत्तर. फतेहसागर झील
- कुंभलगढदुर्ग का निर्माण महाराणा कुंभा ने किस षिल्पी के निर्देषन में पूर्ण करवाया ?
उत्तर. षिल्पी मंडन
- राजस्थान में सर्वधिक वर्षा किस पर्वत के निकटवर्ती क्षेत्रों में लगभग 150 से. मी. तक होती है ?
उत्तर. आबू पर्वत के समीपस्त
- किस राजपुत मनसबदार को अकबर ने ‘फर्जन्द’ की उपाधि प्रदान की ?
उत्तर. मानसिंह को
- राणा सांगा ने किस युद्ध में बाबर की सेना को हराया था ?
उत्तर. बयाना के युद्ध में
- किस प्राचीन सभ्यता को ताम्रवती नाम से भी जाना जाता है ?
उत्तर. आहड़ (उदयपुर)
- राजस्थान में 1964 में वनस्पति घी का पहला कारखाना कहां खोला गया, ध्यातव्य है कि वनसपति घी के लिए मुंगफली एवं बिनौले का तेल प्रमुख कच्चा माल है ?
उत्तर. भीलवाड़ा
- उदयपुर के उतर-पष्चिम में कुंभलगढ और गोगुन्दा के बिच एक पठारी क्षेत्र है, जिसे कहा जाता है ?
उत्तर. भोराट का पठार
- जब सरकार की आमदनी उसके खर्चों से कम होती है तो सरकार को उस अन्तर को पुरा केरने के लिए पब्लिक से उधार लेना पड़ता है, उसे क्या कहा जाता है ?
उत्तर. राजकोषीय घाटा
- गणेष्वर सभ्यता का संबंध किस नदी से है ?
उत्तर. कांतली नदी से
- ‘सर टामस रो’ ने अपना परिचय मुगल सम्राट जहाँगीर को किस स्थान पर दिया ?
उत्तर. मैग्जीन दुर्ग (अजमेर)
- राजस्थान में ईस्ट इण्डिया कम्पनी के साथ संधि करने वाली अंतिम रियासत कौन-सी थी ?
उत्तर. सिरोही
- उत्तर भारत का प्रथम डीएपी खाद कारखाना राजस्थान में कहां स्थित है ?
उत्तर. कपासन (चित्तौड़गढ)
- कानपुरा, सीसाराम, झामरकोटड़ा आदि स्थल किस खनिज से मुख्यतः संबंधित है ?
उत्तर. राॅक फाॅस्फेट
- मारवाड़ के किस राठौड़ शासक ने मुगलों की अधीनता स्वीकार नहीं की ?
उत्तर. राव चन्द्रसेन ने
- बिजोलिया किसान आन्दोलन में किस जाति के किसान सर्वाधिक संख्या में थे ?
उत्तर. धाकड़ जाति के
- राज्य की 2013-14 की वार्षिक बजट योजना अब तक की सभी वार्षिक योजनाओं में सबसे बड़ी है, इसका आकार है ?
उत्तर. 40,500 करोड़ रूपए का
- राजस्थान की पहली बाघ परियोजना कौन-सी है ?
उत्तर. रणथंभौर
44.चारबैत जो राजस्थान की प्रचलित लोक गायन शैली है, कहां की प्रसिद्ध है ?
उत्तर. टोंक
- राजस्थान कें वह लोकदेवता, जिसने महमूद गजनवी से युद्ध किया ?
उत्तर. गोगाजी
- केन्द्रषासित प्रदेष अजमेर-मेरवाड़ का राजस्थान में विलय कब हुआ ?
उत्तर. 1956 में
- राजसमन्द झील का निर्माण 1662 ई. मंे मेवाड़ के किस राणा द्वारा करवाया गया ?
उत्तर. महाराणा राजसिंह द्वारा
- जयसमंद झील किस जिले में स्थित है?
उत्तर. उदयपुर
- राजस्थान में त्योहारों का आगमन किस त्योहार से माना जाता है?
उत्तर. श्रावण तीज (छोटी तीज/उजळी तीज)
- राजस्थान में निजी क्षेत्र की सबसे बड़ी सौर ऊर्जा परियोजना ने बिजली उत्पादन शुरू कौम से जिले में किया?
उत्तर. नागौर जिले के खींवसर में (रिलायंस ग्रुप द्वारा उत्पादित)
जेम्स टॉड का राजस्थान क्रॉनिकल्स
18वीं सदी के अंत और 19वीं सदी की शुरुआत में, भारत अंग्रेजों के लिए वाइल्ड वेस्ट का पूर्वी समकक्ष था, एक विदेशी भूमि जहां युवा अपनी किस्मत बनाने के लिए नेतृत्व करते थे। इस महान उपमहाद्वीप के लिए उड़ान भरने वाले कई बहादुरों में एक युवा जेम्स टॉड थे, जिन्होंने भारत में अपने दो दशक लंबे करियर के दौरान कई टोपी पहनी थी।
मुख्य रूप से ईस्ट इंडिया कंपनी के एक अधिकारी, टॉड राजपूत राज्यों के लिए कंपनी के एजेंट और एंग्लो-मराठा युद्धों के दौरान एक खुफिया अधिकारी थे। वे एक विद्वान, इतिहासकार और मुद्राशास्त्री भी थे। लेकिन टॉड में एक गुण था जिसने उपमहाद्वीप पर उनके करियर को छोटा कर दिया – औपनिवेशिक शासन की ऊंचाई के दौरान, यहां एक व्यक्ति था जो ‘मूल निवासियों’ से इतना जुड़ा हुआ था कि उसे अपने आधिकारिक कर्तव्यों से मुक्त होना पड़ा!
इंग्लैंड लौटने के बाद, टॉड ने एक पुस्तक प्रकाशित की जिसे आज भी राजस्थान पर अंग्रेजी में लिखी गई सबसे उल्लेखनीय कृतियों में से एक माना जाता है। एनल्स एंड एंटीक्विटीज़ ऑफ़ राजस्थान शीर्षक से , उनकी महान कृति पहली बार 1829 में प्रकाशित हुई थी और आज भी एक लोकप्रिय संदर्भ कार्य है। राजपूत शौर्य और वीरता के काल्पनिक विवरणों से भरी इस पुस्तक ने परिभाषित किया कि व्यापक दुनिया राजस्थान को कैसे देखती है, साथ ही साथ वर्तमान राजस्थानी अपने अतीत को कैसे देखते हैं।
राजस्थान का इतिहास (गोपीनाथ शर्मा) हिन्दी पुस्तक | Rajasthan ka Itihas (Gopinath Sharma) Hindi Book PDF
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FAQ
राजगुरु, दानगुरु, हालगुरु एवं परमगुरु नामक उपाधियां किस शासक को प्रदान की गई है ?
राजगुरु, दानगुरु, हालगुरु एवं परमगुरु नामक उपाधियां राणा कुम्भा को प्रदान की गई है .
252. निम्न में से किसके शासनकाल में मेवाड़ भील कोर का गठन किया गया था ?
सरदार सिंह के शासनकाल में मेवाड़ भील कोर का गठन किया गया था .
253. सन 1585 में महाराणा प्रताप ने किसे अपनी नई राजधानी बनाया ?
चावण्ड को महाराणा प्रताप ने किसे अपनी नई राजधानी बनाया
254. जालौर में अलाउद्दीन का समकालीन शासक कौन था ?
जालौर में अलाउद्दीन का समकालीन शासक कान्हड़ देव था ?