आइये पढ़ते है राजस्थान की प्राचीन सभ्यताएं– राजस्थान में पाकिस्तान से लगते एवं सीमावर्ती क्षेत्रों में खोजबीन एवम उत्खनन के कार्य हुए , जिससे राजस्थान में सैन्धव सभ्यता तथा इससे इससे भी पूर्व की सभ्यता के अवशेष मिले और हमारा इतिहास 2500 ई . पूर्व से भी पहले तक व्हाला गया |
राजस्थान में मानव की उपस्थिति के प्राचीनतम प्रमाण बनास एवम उसकी सहायक बेडच व गंभीरी नदियों के किनारे मिले है |

राजस्थान में सभ्यताओं का वर्गीकरण एवं प्रमुख स्थल
(1 ) ताम्रयुगीन सभ्यताएं
- आह्ड , उदयपुर
- गणेश्वर , सीकर
- गिलुण्ड , राजसमन्द
- झाडौल , उदयपुर
- पिण्ड पहाड़ियां , चितौडगढ़
- कुराड़ा , नागौर
- साबनिया व पुंगल , बीकानेर
- नंदलालपुरा , जयपुर
- किराडोल , जयपुर
- चिथवाड़ी , जयपुर
- एलाना , जालौर
- बुढा पुष्कर , अजमेर
- काल महोली , सवाई माधोपुर
- मलाह , भरतपुर
- बालाथल , उदयपुर
- ओझियाना , भीलवाडा
(2 )लौहयुगीन सभ्यताएं
- नोह , भरतपुर
- जोधपुरा , जयपुर
- सुनारी , झुंझुनू
- रेढ , टोंक
- ईसवाल , उदयपुर
- बैराठ , जयपुर
- नगरी , चित्तौडगढ़
- बरार , गंगानगर
- नालियासर , जयपुर
- भीनमाल , जालौर
(3 )कान्स्ययुगीन सभ्यता
- कालीबंगा , हनुमानगढ़
(4 )पाषाणकालीन सभ्यताएं
{A}पूरापाषाणकालीन
- बुढा पुष्कर , अजमेर
- जायल , नागौर
- इंद्रगढ़ , बूंदी
- विराटनगर , बूंदी
- गोगाखेडा , राजसमन्द
{B}मध्यपाषाणकालीन
- बगौर , भीलवाड़ा
- तिलवाडा , बाड़मेर
- सोजत , पाली
- पंचपद्रा , बाड़मेर
{C}नवपाषाणकालीन
- हम्मीरगढ़ , भीलवाडा
- विराटनगर , जयपुर
- भरनी , टोंक
- सोहनपुरा , सीकर
- हरसौरा , अलवर
- समदडी , बाड़मेर
- आलनिया , कोटा
पाषाण कालीन सभ्यताएँ
प्रदेश में आदि मानव द्वारा प्रयुक्त जो प्राचीनतम पाषाण उपलब्ध हुए हैं, वे लगभग डेढ़ लाख वर्ष पुराने हैं। इस भूखण्ड में मानव सभ्यता उससे भी पुरानी हो सकती है। राजस्थान में मानव सभ्यता पुरा-पाषाण, मध्य-पाषाण तथा उत्तर-पाषाण काल से होकर गुजरी।
- पुरा-पाषाण काल डेढ़ लाख वर्ष पूर्व से पचास हजार वर्ष पूर्व तक का काल समेटे हुए है। इस काल में हैण्ड एक्स, क्लीवर तथा चॉपर आदि का प्रयोग करने वाला मानव बनास, गंभीरी, बेड़च, बाधन तथा चम्बल नदियों की घाटियों में (आज जहाँ बांसवाड़ा, डूंगरपुर, उदयपुर, भीलवाड़ा, बूंदी, कोटा, झालावाड़ तथा जयपुर जिले हैं) रहता था जहाँ प्रस्तर युगीन मानव के चिह्न मिले हैं। इस युग के भद्दे तथा भौंडे हथियार अनेक स्थानों से मिले हैं जिनके आधार पर कहा जा सकता है कि लगभग पूरे प्रदेश में इस युग का मानव फैल गया था। इन हथियारों को प्रयोग में लाने वाला मनुष्य सभ्यता के उषा काल पर खड़ा था। उसका आहार शिकार से प्राप्त वन्य पशु, प्राकृतिक रूप से प्राप्त कन्द, मूल, फल, पक्षी, मछली आदि थे। नगरी, खोर, ब्यावर, खेड़ा, बड़ी, अनचर, ऊणचा देवड़ी, हीराजी का खेड़ा, बल्लू खेड़ा (चित्तौड़ जिले में गंभीरी नदी के तट पर), भैंसरोड़गढ़, नगघाट (चम्बल और बामनी के तट पर) हमीरगढ़, सरूपगंज, बीगोद, जहाजपुर, खुरियास, देवली, मंगरोप, दुरिया, गोगाखेड़ा, पुर, पटला, संद, कुंवारिया, गिलूंड (भीलवाड़ा जिले में बनास के तट पर), लूणी (जोधपुर जिले में लूनी के तट पर), सिंगारी और पाली (गुड़िया और बांडी नदी की घाटी में), समदड़ी, शिकारपुरा, भावल, पीचक, भांडेल, धनवासनी, सोजत, धनेरी, भेटान्दा, धुंधाड़ा, गोलियो, पीपाड़, खींवसर, उम्मेदनगर (मारवाड़ में), गागरोन (झालवाड़), गोविंदगढ़ (अजमेर जिले में सागरमती के तट पर), कोकानी, (कोटा जिले में परवानी नदी के तट पर), भुवाणा, हीरो, जगन्नाथपुरा, सियालपुरा, पच्चर, तारावट, गोगासला, भरनी (टोंक जिले में बनास तट पर) आदि स्थानों से उस काल के पत्थर के हथियार प्राप्त हुए हैं।
- मध्य-पाषाण काल लगभग 50 हजार वर्ष पूर्व से आरंभ हुआ। इस काल के उपकरणों में स्क्रैपर तथा पाइंट विशेष उल्लेखनीय हैं। ये औजार लूनी ओर उसकी सहायक नदियों की घाटियों में, चित्तौड़गढ़ जिले की बेड़च नदी की घाटी में और विराटनगर में भी प्राप्त हुए हैं। इस समय तक भी मानव को पशुपालन तथा कृषि का ज्ञान नहीं हुआ था।
- उत्तर-पाषाण काल का आरंभ लगभग 10 हजार वर्ष पूर्व से माना जाता है। इस काल में पहले हाथ से और फिर से चाक से बर्तन बनाये गये। इस युग के औजार चित्तौड़गढ़ जिले में बेड़च व गंभीरी नदियों के तट पर, चम्बल और वामनी नदी के तट पर भैंसरोड़गढ़ व नवाघाट, बनास के तट पर हमीरगढ़, जहाजपुर, देवली व गिलूंड, लूनी नदी के तट पर पाली, समदड़ी, बनास नदी के तट पर टौंक जिले में भरनी आदि अनेक स्थानों से प्राप्त हुए हैं। इस काल में कपास की खेती भी होने लगी थी। समाज का वर्गीकरण आरंभ हो गया था। व्यवसायों के आधार पर जाति व्यवस्था का सूत्रपात हो गया था। इस युग के उपकरण उदयपुर के बागोर तथा मारवाड़ के तिलवाड़ा नाम स्थानों पर मिले हैं।
ताम्र, कांस्य एवं लौह युगीन सभ्यताएँ
- गणेश्वर (सीकर), आहड़ (उदयपुर), गिलूण्ड (राजसमंद), बागोर (भीलवाड़ा) तथा कालीबंगा (हनुमानगढ़) से ताम्र-पाषाण कालीन, ताम्रयुगीन एवं कांस्य कालीन सभ्यतायें प्रकाश में आयी हैं। ताम्रयुगीन प्राचीन स्थलों में पिण्डपाड़लिया (चित्तौड़), बालाथल एवं झाड़ौल (उदयपुर), कुराड़ा (नागौर), साबणिया एवं पूगल (बीकानेर), नन्दलालपुरा, किराड़ोत व चीथवाड़ी (जयपुर), ऐलाना (जालोर), बूढ़ा पुष्कर (अजमेर), कोल- माहोली (सवाईमाधोपुर) तथा मलाह (भरतपुर) विशेष उल्लेखनीय हैं। इन सभी स्थलों पर ताम्र उपकरणों के भण्डार मिले हैं। लौह युगीन सभ्यताओं में नोह (भरतपुर), जोधपुरा (जयपुर) एवं सुनारी (झुंझुनूं) प्रमुख हैं। (आर.ए.एस. मुख्य परीक्षा वर्ष 1996, व्याख्यात्मक टिप्पणी लिखिये-राजस्थान के महत्त्वपूर्ण पुरातात्विक स्थल) (आर.ए.एस. मुख्य परीक्षा वर्ष 1999, दो सौ शब्दों में लिखिये- राजस्थान के महत्वूपर्ण पुरातात्विक स्थलों के बारे में लिखिये।)
सरस्वती नदी सभ्यता
- राजस्थान में वैदिक काल तथा उससे भी पूर्व सरस्वती नदी प्रवाहित होती थी जिसके किनारे पर आर्यों ने अनेक यज्ञ व युद्ध किये। सरस्वती नदी की उत्त्पत्ति तुषार क्षेत्र से मानी गयी है। यह स्थान मीरपुर पर्वत है जिसे ऋग्वेद में सारस्वान क्षेत्र कहा गया है। ऋग्वेद के 10वें मण्डल में सूत्र 53 के मंत्र 8 में दृषद्वती के अतिरिक्त अश्वन्वती नदी का उल्लेख है। कुछ विद्वान इन दोनों नदियों (दृषद्वती तथा अश्वन्वती) को एक ही समझते हैं तथा सरस्वती एवं दृषद्वती का मरूप्रदेश में बहते रहना स्वीकार करते हैं। दसवीं सदी के आसपास दक्षिणी-पश्चिमी राजस्थान की गणना सारस्वत मण्डल में की जाती थी। यह पूरा क्षेत्र लूणी नदी बेसिन का एक भाग है। लूनी नदी सरस्वती की सहायक नदी थी। सरस्वती आज भी राजस्थान में भूमिगत होकर बह रही है। कुछ विद्वान घग्घर (हनुमानगढ़-सूरतगढ़ क्षेत्र में बहने वाली नदी) को भी सरस्वती का परवर्ती रूप मानते हैं। सरस्वती के लिये महाकवि कालिदास ने ‘अंतः सलिला’ विशेषण का प्रयोग किया है।
- कुछ विद्वानों का मानना है कि सरस्वती अम्बाला जिले के उप हिमालय की श्रेणियों से निकलती थी जो किसी कारण से सूख गयी थी। इसका तल पीली-चिकनी उपजाऊ मिट्टी का समतल हिस्सा है। इसके किनारे-किनारे छोटे-बड़े चपटे एवं ऊंचे टीले नजर आते हैं जिन्हें थेड़ कहा जाता है। यह नदी (सरस्वती) आजकल छोटी धारा के रूप में निकलकर प्राचीन नगर कुरूक्षेत्र, थानेश्वर पिवोहा होती हुई कुछ और धाराओं से मिलकर घग्घर में मिल जाती है तथा दक्षिण-पश्चिम की ओर बहती हुई हिसार जिले के सिरसा नगर के आगे कुछ दूरी तक बहकर बीकानेर में प्रवेश करती है। यह नदी (सरस्वती) कब सूख गयी, कहना कठिन है।
- मान्यता है कि सरस्वती के किनारे एक घना वन था, उसका नाम काम्यक वन था। पांडव वनवास के लिये हस्तिनापुर से पश्चिम की ओर एक समतल जल रहित रास्ते से गये थे। महाभारत में भी सरस्वती के मरुप्रदेश में विलीन हो जाने का उल्लेख है। हनुमानगढ़ जिले में घग्घर को नाली कहा जाता है। यहाँ पर एक दूसरी धारा जिसे नाईवाला कहते हैं, घग्घर में मिल जाती है, जो असल में सतलज का प्राचीन बहाव क्षेत्र है। यह सरस्वती नदी का पुराना हिस्सा था। तब तक सिंधु में मिलने के लिये सतलज में व्यास का समावेश नहीं हो पाया था। हनुमानगढ़ के दक्षिण पूर्व की ओर नाली के दोनों किनारे ऊंचे-ऊंचे दिखायी देते हैं। यही कारण है कि आज भी हनुमानगढ़ जंक्शन कस्बे का सामान्य धरातल नदी के पेटे के स्तर से नीचे है। (आर.ए.एस. प्रारंभिक परीक्षा 2007, राजस्थान के कौनसे कस्बे का साधारण धरातल स्तर उसके पास की नदी के पेटे के स्तर के नीचे है- पाली/हनुमानगढ़ जंक्शन/टोंक/बालोतरा?) सूरतगढ़ से तीन मील पहले ही एक और सूखी हुई धारा आकर घग्घर में मिलती है। यह सूखी धारा वास्तव में दृशद्वती है। सूरतगढ़ से आगे अनूपगढ़ तक तीन मील की चौड़ाई रखते हुए नदी के दोनों किनारे और भी ऊंचे दिखायी देते हैं जिनके बीच में गंगनहर की सिंचाई से खूब हरा-भरा भाग है। यहीं पर अनेक गाँव बसे हैं। बीकानेर जिले में पहुँच कर घग्घर जल रहित हो जाती है किंतु वर्षा होने से ऊपरी क्षेत्र से जल प्राप्त हो जाता है। दृशद्वती हिमालय की निचली पहाड़ियों से कुछ दक्षिण से निकलती है। पंजाब में इसे चितांग बोलते हैं। भादरा में फिरोजशाह की बनवाई हुई पश्चिम यमुना नहर, दृशद्वती के कुछ भाग में दिखायी पड़ती है। भादरा के आगे नोहर तथा दक्षिण में रावतसर के पास इसके रेतीले किनारे दिखते हैं। आगे अनुपजाऊ किंतु हरा-भरा क्षेत्र है।
सिंधु घाटी सभ्यता
- सिंधु नदी हिमालय पर्वत से निकल कर पंजाब तथा सिंध प्रदेश में बहती हुई अरब सागर में मिलती है। इस नदी के दोनों तटों पर तथा इसकी सहायक नदियों के तटों पर जो सभ्यता विकसित हुई उसे सिंधु सभ्यता, हड़प्पा सभ्यता एवं मोहेनजोदड़ो सभ्यता कहा जाता है। यह तृतीय कांस्यकालीन सभ्यता थी तथा इसका काल ईसा से 5000 वर्ष पूर्व से लेकर ईसा से 1750 वर्ष पूर्व तक माना जाता है। इस सभ्यता की दो प्रमुख राजधानियां हड़प्पा (पंजाब में) तथा मोहेनजोदड़ो (सिंध में) मानी जाती हैं। अब ये दोनों स्थल पाकिस्तान में चले गये हैं। मोहेनजोदड़ो शब्द का निर्माण सिन्धी भाषा के ‘मुएन जो दड़ो’ शब्दों से हुआ है जिनका अर्थ है- मृतकों का टीला। राजस्थान में इस सभ्यता के अवशेष कालीबंगा एवं रंगमहल आदि में प्राप्त हुए हैं। गंगानगर जिले में नाईवाला की सूखी धारा, रायसिंहनगर से अनूपगढ़ के दक्षिण का भाग तथा हनुमानगढ़ से हरियाणा की सरहद तक के सर्वेक्षण में पाया गया है कि नाईवाला की सूखी धारा में स्थित 4-5 टीलों पर गाँव बस चुके हैं। दृषद्वती के सूखे तल में भी काफी दूर तक टीले स्थित हैं। इस तल में स्थित 7-8 थेड़ों में हड़प्पाकालीन किंतु खुरदरे व कलात्मक कारीगरी रहित मिट्टी के बरतन के टुकड़ों की बहुतायत थी। सरस्वती तल में हड़प्पाकालीन छोटे-छोटे व उन्हीं के पास स्लेटी मिट्टी के बरतनों वाले उतने ही थेड़ मौजूद थे। हरियाणा की सीमा पर ऐसे थेड़ भी पाये गये जिन पर रोपड़ की तरह दोनों प्रकार के हड़प्पा व स्लेटी मिट्टी के ठीकरे मौजूद थे। हनुमानगढ़ किले की दीवार के पास खुदाई करने पर रंगमहल जैसे ठीकरों के साथ एक कुशाण राजा हुविश्क का तांबे का सिक्का भी मिला जो इस बात की पुष्टि करता है कि भाटियों का यह किला व अंदर का नगर कुशाण कालीन टीले पर बना है। बीकानेर के उत्तरी भाग की सूखी नदियों के तल में 4-5 तरह के थेड़ पाये गये। (आर.ए.एस. मुख्य परीक्षा, 1996-इतिहास, राजस्थान तथा गुजरात में किन स्थानों पर सिंधु घाटी सभ्यता पायी गयी है?)
कालीबंगा

- हड़प्पाकालीन सभ्यता वाले 30-35 थेड़, जिनमें कालीबंगा का थेड़ सबसे ऊँचा है, की खुदाई साठ के दशक में की गयी। हनुमानगढ़-सूरतगढ़ मार्ग पर स्थित पीलीबंगा से लगभग 5 किलोमीटर दूर स्थित कालीबंगा में पूर्वहड़प्पा कालीन एवं हड़प्पा कालीन सभ्यता के अवशेष प्राप्त हुए हैं।
- खुदाई के दौरान मिली काली चूड़ियों के टुकड़ों के कारण इस स्थान को कालीबंगा कहा जाता है।
- इस स्थान का पता पुरातत्व विभाग के निदेशक अमलानंद घोष ने ई.1952 में लगाया था। ई.1961-62 में बी.के.थापर, जे.वी.जोशी तथा वी.वी.लाल के निर्देशन में इस स्थल की खुदाई की गयी। (अधिशासी अधिकारी भर्ती संवीक्षा भर्ती परीक्षा 2008, कालीबंगा सभ्यता को सर्वप्रथम प्रकाश में लाने का श्रेय दिया जा सकता है- बी.बी. लाल/बी.के. थापर/एम.डी. खरे/अमलानंद घोष?)
- कालीबंगा के टीलों की खुदाई के दौरान दो भिन्न कालों की सभ्यता प्राप्त हुई है। पहला भाग 2400 ई.पू. से 2250 ई.पू. का है तथा दूसरा भाग 2200 ई.पू. से 1700 ई.पू. का है।
- यहाँ से एक दुर्ग, जुते हुए खेत, सड़कें, बस्ती, गोल कुओं, नालियों मकानों व धनी लोगों के आवासों के अवशेष प्राप्त हुए हैं। मकानों में चूल्हों के अवशेष भी मिले हैं।
- कालीबंगा के लोग मिट्टी की कच्ची या पक्की ईंटों का चबूतरा बनाकर मकान बनाते थे, बरतनों में खाना खाने की मिट्टी की थालियां, कूण्डे, नीचे से पतले व ऊपर से प्यालानुमा गिलास, लाल बरतनों पर कलापूर्ण काले रंग की चित्रकारी, मिट्टी की देवी की छोटी-छोटी प्रतिमायें, बैल, बैलगाड़ी, गोलियां, शंख की चूड़ियां, चकमक पत्थर की छुरियां, शतरंज की गोटी तथा एक गोल, नरम पत्थर की मुद्रा आदि मिले। बरतनों पर मछली, बत्तख, कछुआ तथा हरिण की आकृतियां बनी हैं।
- यहाँ से मिली मुहरों पर सैंधव लिपि उत्कीर्ण है जिसे पढ़ा नहीं जा सका है। यह लिपि दाहिने से बायें लिखी हुई है।
- यहाँ से मिट्टी, तांबे एवं कांच से बनी हुई सामग्री प्राप्त हुई है। छेद किये हुए किवाड़ एवं मुद्रा पर व्याघ्र का अंकन एक मात्र इसी स्थल पर मिले हैं। (आर.ए.एस. मुख्य परीक्षा 1987-इतिहास, कालीबंगा के उत्खनन से सैंधव सभ्यता पर क्या नवीन प्रकाश पड़ा है?, आर.ए.एस. मुख्य परीक्षा, 1994-इतिहास, कालीबंगा के पुरातत्व स्थल का क्या महत्व है?, आर.ए.एस. मुख्य परीक्षा वर्ष 1997, निम्न के बारे में आप क्या जानते हैं?- कालीबंगा।) (अधिशासी अधिकारी भर्ती संवीक्षा भर्ती परीक्षा 2008-किस पुरातात्विक स्थल से जुते हुए खेत का साक्ष्य प्राप्त हुआ है- धौलावीरा/कालीबंगा/ लोथल/रंगपुर?)
रंगमहल
- सूरतगढ़-हनुमानगढ़ क्षेत्र में रंगमहल, बड़ोपल, मुण्डा, डोबेरी आदि स्थलों के आसपास के क्षेत्र में कई थेड़ मौजूद हैं जिनमें से कुछ की खुदाई की गयी है।
- इनमें रंगमहल का टीला सबसे ऊँचा है। ई. 1952 से 1954 के बीच स्वीडिश दल द्वारा रंगमहल के टीलों की खुदाई की गयी है। इस खुदाई से ज्ञात हुआ है कि प्रस्तर युग से लेकर छठी शताब्दी ईस्वी पूर्व तक यह क्षेत्र पूर्णतः समृद्ध था।
- यही कारण है कि यहाँ से प्रस्तर युगीन एवं धातु युगीन संस्कृति के अवशेष प्राप्त हुए हैं।
- रंगमहल के टीलों पर पक्की ईंटें व रोड़े, मोटी परत व लाल रंग वाले बरतनों पर काले रंग के मांडने युक्त हड़प्पा कालीन सभ्यता के बरतनों के टुकड़े बिखरे हुए दिखायी देते हैं।
- यहाँ से ताम्बे के दो कुषाण कालीन सिक्के तथा गुप्त कालीन खिलौने भी मिले हैं। तांबे के 105 सिक्के भी प्राप्त हुए हैं।
आहड़ सभ्यता
- सरस्वती-दृश्द्वती नदी सभ्यता से निकलकर इस प्रदेश के मानव ने आहड़, गंभीरी, लूनी, डच तथा कांटली आदि नदियों के किनारे अपनी बस्तियां बसाईं तथा सभ्यता का विकास किया।
- इन सभ्यताओं का काल पश्चिमी विद्वानों द्वारा 7 हजार से 3 हजार वर्ष पुराना ठहराया गया है जिसे कुछ भारतीय विद्वानों ने भी ज्यों का त्यों स्वीकार कर लिया है किंतु कुछ विद्वानों ने पश्चिमी विद्वानों द्वारा बताये गये ईसा पूर्व के इतिहास को इन तिथियों से भी तीन हजार वर्ष पूर्व का होना सिद्ध किया है।
- यह सभ्यता उदयपुर जिले में आहड़ नदी के आस-पास, बनास, बेड़च, चित्तौड़गढ़ जिले में गंभीरी, वागन, भीलवाड़ा जिले में खारी तथा कोठारी आदि नदियों के किनारे अजमेर तक फैली थी। इस क्षेत्र में प्रस्तर युगीन मानव निवास करता था।
- आहड़ टीले का उत्खनन डॉ. एच.डी. सांकलिया के नेतृत्व में हुआ था।
- प्राचीन शिलालेखों में आहड़ का पुराना नाम ताम्रवती अंकित है। दसवीं व ग्यारहवीं शताब्दी में इसे आघाटपुर अथवा आघट दुर्ग के नाम से जाना जाता था। बाद के काल में इसे धूलकोट भी कहा जाता था।
- उदयपुर से तीन किलोमीटर दूर 1600 फुट लम्बे और 550 फुट चौड़े धूलकोट के नीचे आहड़ का पुराना कस्बा दबा हुआ है जहाँ से ताम्र युगीन सभ्यता प्राप्त हुई है।
- ये लोग लाल, भूरे व काले मिट्टी के बर्तन काम में लेते थे जिन्हें उलटी तपाई शैली में पकाया जाता था। मकान पक्की ईंटों के होते थे।
- पशुपालन इनकी अर्थव्यवस्था का मुख्य आधार था।
- आहड़ सभ्यता की खुदाई में मानव सभ्यता के कई स्तर प्राप्त हुए हैं। प्रथम स्तर में मिट्टी की दीवारें और मिट्टी के बर्तन मिले हैं। दूसरा स्तर प्रथम स्तर के ऊपर स्थित है।
- यहाँ से बस्ती के चारों ओर दीवार भी मिली है। तीसरे स्तर से चित्रित बर्तन मिले हैं। चतुर्थ स्तर से ताम्बे की दो कुल्हाड़ियां भी प्राप्त हुई हैं।
- मकानों से अनाज पीसने की चक्कियां, ताम्बे के औजार तथा पत्थरों के आभूषण मिले हैं। गोमेद तथा स्फटिक की मणियां भी प्राप्त हुई हैं। तांबे की छः मुद्रायें व तीन मोहरें मिली हैं।
- एक मुद्रा पर एक ओर त्रिशूल तथा दूसरी ओर अपोलो देवता अंकित है जो तीर एवं तरकश से युक्त है। इस पर यूनानी भाषा में लेख अंकित है। यह मुद्रा दूसरी शताब्दी ईस्वी की है।
- यहाँ के लोग मृतकों को कपड़ों तथा आभूषणों के साथ गाढ़ते थे।
बागोर सभ्यता
- भीलवाड़ा कस्बे से 25 किलोमीटर दूर कोठारी नदी के किनारे वर्ष 1967-68 में डॉ. वीरेंद्रनाथ मिश्र तथा L. S . लेशिन के नेतृत्व में की गयी खुदाई में 3000 ई. पू. से लेकर 500 ई. पू. तक के काल की बागोर सभ्यता का पता लगा।
- यहाँ के निवासी कृषि, पशुपालन तथा आखेट करते थे। यहाँ से तांबे के पाँच उपकरण प्राप्त हुए हैं। मकान पत्थरों से बनाये गये हैं। बर्तनों में लोटे, थाली, कटोरे, बोतल आदि मिले हैं।
- उपनाम – महासतियों का टीला , आदिम संस्कृति का संग्रहालय
- यहाँ से पशुपालन के प्राचीनतम अवशेष प्राप्त हुए है |
बालाथल
- उदयपुर जिले की वल्लभनगर तहसील में बेडच नदी के किनारे स्थित है।
- खोजकर्ता – V.N. मिश्र
- उत्खनन – V.S. सिंधे
- यहाँ से 1993 में ई. पू. 3000 से लेकर ई. पू. 2500 तक की ताम्रपाषाण युगीन संस्कृति के बारे में पता चला है।
- यहाँ के लोग भी कृषि, पशुपालन एवं आखेट करते थे।
- ये लोग मिट्टी के बर्तन बनाने में निपुण थे तथा कपड़ा बुनना जानते थे।
- यहाँ से तांबे के सिक्के, मुद्रायें एवं आभूषण प्राप्त हुए हैं।
- आभूषणों में कर्णफूल, हार और लटकन मिले हैं।
- यहाँ से एक दुर्गनुमा भवन भी मिला है तथा ग्यारह कमरों वाले विशाल भवन भी प्राप्त हुए हैं।
- यहां से 5 लोहा गलाने की भट्टियाँ भी प्राप्त हुई है |
गणेश्वर सभ्यता
- सीकर जिले की नीम का थाना तहसील में कांटली नदी के तट पर गणेश्वर टीला की खुदाई 1977-78 में R.C. अग्रवाल द्वारा की गयी थी।
- इसे भारत में ताम्रयुगीन सभ्यताओं की जननी कहा जाता है |
- यहाँ से प्राप्त सभ्यता लगभग 2800 वर्ष पुरानी है। ताम्र युगीन सभ्यताओं में यह अब तक प्राप्त सबसे प्राचीन केंद्र है।
- यह सभ्यता सीकर से झुंझुनूं, जयपुर तथा भरतपुर तक फैली थी।
- यहाँ से मछली पकड़ने के कांटे मिले हैं जिनसे पता चलता है कि उस समय कांटली नदी में पर्याप्त जल था।
- यहाँ का मानव भोजन संग्रहण की अवस्था में था।
- यहाँ से ताम्र उपकरण एवं बर्तन बड़ी संख्या में मिले हैं। ऐसा संभवतः इसलिये संभव हो सका क्योंकि खेतड़ी के ताम्र भण्डार यहाँ से अत्यंत निकट थे।
- मिट्टी के बर्तनों में कलश, तलसे, प्याले, हाण्डी आदि मिले हैं जिनपर चित्रांकन उपलब्ध है। (प्राथमिक एवं उच्च प्राथमिक विद्यालय अध्यापक प्रतियोगी परीक्षा 2004, गणेश्वर का टीला जहाँ से ताम्रयुगी अवशेष मिले हैं, स्थित है?)
ऋग्वैदिक सभ्यताएं
- सरस्वती और दृश्द्वती के बीच के हिस्से को मनु ने ब्रह्मावर्त बताया है जो अति पवित्र एवं ज्ञानियों का क्षेत्र माना गया है। आगे उत्तर-पूर्व में कुरुक्षेत्र स्वर्ग के समान माना गया है।
- सरस्वती-दृश्द्वती के इस क्षेत्र में पाकिस्तान की सीमा से लगते अनूपगढ़ क्षेत्र से उत्तर पूर्व की ओर चलने पर हड़प्पा कालीन सभ्यता से बाद की सभ्यता के नगर बड़ी संख्या में मिलते हैं जो भूमि के नीचे दबकर टीले के रूप में दिखायी पड़ते हैं।
- इन टीलों में स्लेटी मिट्टी के बर्तन काम में लाने वाली सभ्यता निवास करती थी। यह सभ्यता हड़प्पा कालीन सभ्यता से काफी बाद की थी।
- अनूपगढ़ तथा तरखानवाला डेरा से प्राप्त खुदाई से इस सभ्यता पर कुछ प्रकाश पड़ा है।
- राजस्थान में इस सभ्यता का प्रतिनिधित्व करने वाले अन्य टीलों में नोह (भरतपुर), जोधपुरा (जयपुर) एवं सुनारी (झुंझुनूं) प्रमुख हैं ये सभ्यतायें लौह युगीन सभ्यता का हिस्सा हैं। सुनारी से लौह प्राप्त करने की प्राचीनतम भट्टियाँ प्राप्त हुई हैं।
महाभारत कालीन सभ्यता
- महाभारत काल के आने से पूर्व मानव बस्तियां सरस्वती तथा दृशद्वती क्षेत्र से हटकर पूर्व तथा दक्षिण की ओर खिसक आयीं थीं।
- उस काल में कुरु जांगलाः तथा मद्र जांगलाः के नाम से पुकारे जाने वाले क्षेत्र आज बीकानेर तथा जोधपुर के नाम से जाने जाते हैं।
- इस भाग के आस पास का क्षेत्र सपादलक्ष कहलाता था। कुरु, मत्स्य तथा शूरसेन उस काल में बड़े राज्यों में से थे।
- अलवर राज्य का उत्तरी विभाग कुरुदेश के, दक्षिणी और पश्चिमी विभाग मत्स्य देश के और पूर्वी विभाग शूरसेन के अंतर्गत था।
- भरतपुर तथा धौलपुर राज्य तथा करौली राज्य का अधिकांश भाग शूरसेन देश के अंतर्गत थे।
- शूरसेन देश की राजधानी मथुरा, मत्स्य की विराट तथा कुरु की इन्द्रप्रस्थ थी।
- महाभारत काल में शाल्व जाति की बस्तियों का उल्लेख मिलता है जो भीनमाल, सांचोर तथा सिरोही के आसपास थीं।
बैराठ सभ्यता
- मौर्य कालीन सभ्यता के प्रमुख अवेशष बैराठ से प्राप्त हुए हैं।इस कारण इसे बैराठ सभ्यता भी कहा जाता है।
- जयपुर से 85 किलोमीटर दूर विराटनगर की भब्रू पहाड़ी से मौर्य सम्राट अशोक का एक शिलालेख मिला है।
- ई. 1840 में यह शिलालेख एशियाटिक सोसायटी ऑफ बंगाल (कलकत्ता) को स्थानांतरित कर दिया गया।
- ई. 1909 में बीजक की पहाड़ी में एक बौद्ध विहार (गोलमंदिर) के अवशेष प्राप्त हुए। इस विहार को सम्राट अशोक के शासन काल के प्रारंभिक दिनों में निर्मित माना जाता है।
- इसमें पत्थरों के स्थान पर लकड़ी के स्तंभों तथा ईंटों का प्रयोग हुआ है। इस स्थान से अलंकारिक मृद्पात्र, पहिये पर त्रिरत्न तथा स्वस्तिक के चिह्न प्राप्त हुए हैं।
- जयपुर नरेश सवाई रामसिंह के शासन काल में यहाँ से एक स्वर्णमंजूषा भी प्राप्त हुई थी जिसमें भगवान बुद्ध के अस्थि अवशेष थे।
- चीनी चात्री ह्वेनसांग ने इस क्षेत्र में 8 बौद्ध विहार देखे थे जिनमें से 7 का अब तक पता नहीं चल पाया है।
- अशोक ने जिस योजना के अनुसार शिलालेख लगवाये थे, उसके अनुसार इन 8 बौद्ध विहारों के पास 128 शिलालेख लगवाये होंगे किंतु इनमें से अब तक कुल 2 शिलालेख ही प्राप्त हुए हैं। (आर.ए.एस. मुख्य परीक्षा वर्ष 1988 एवं 1994, निम्न के बारे में आप क्या जानते हैं- बैराठ?) (आर.ए.एस. प्रारंभिक परीक्षा वर्ष 2013, सामान्य ज्ञान, अशोक के किस अभिलेख में पारम्परिक अवसरों पर पशु बलि पर रोक लगाई गई है, ऐसा लगता है कि यह पाबंदी पशुओं के वध पर थी- अ. शिला अभिलेख 1, ब. स्तम्भलेख 5, स. शिला अभिलेख 9, द. शिला अभिलेख 11.)
- ऐतिहासिक एवं सांस्कृतिक धरोहर के संरक्षण में समस्याएँ
राजस्थान एक विस्तृत प्रदेश है। इसका 61.11 प्रतिशत भाग मरुस्थल है। इतने बड़े प्रदेश में पुरातात्विक सामग्री, प्राचीन भवन, दुर्ग, महल, देवालय, स्मारक, सरोवर, बावड़ियां, मूर्तियां, शिलालेख, प्राचीन ग्रंथ, शासकीय अभिलेख, सिक्के, ताड़पत्र, ताम्रपत्र आदि का विशाल भण्डार भरा पड़ा है। इस सम्पूर्ण सामग्री को खोज-खोज कर सुरक्षित स्थान पर संजोना अत्यंत परिश्रमयुक्त एवं खर्चीला कार्य है। इस कार्य में निपुण व्यक्तियों का भी अभाव है। इस कारण राजस्थान में प्राचीन ऐतिहासिक एवं सांस्कृतिक धरोहर को संजोकर रख पाना बहुत बड़ी समस्या है। फिर भी राजस्थान सरकार ने पूरे राज्य में बड़ी संख्या में राजकीय संग्रहालयों की स्थापना की है। बीकानेर में राजस्थान राज्य अभिलेखागार तथा जोधपुर में प्राच्य विद्या संस्थान की स्थापना की गयी है। जयपुर, बीकानेर, चित्तौड़, जयपुर, अलवर, कोटा तथा उदयपुर में इसकी शाखायें स्थापित की गयी हैं। राजस्थान में मौजूद पुराने दुर्गों एवं ऐतिहासिक भवनों का संरक्षण करने के लिये पर्याप्त संसाधन नहीं हैं जिसके कारण कई दुर्ग, हवेलियाँ, मंदिर एवं महल उपेक्षित पड़े हैं। कुछ वर्ष पूर्व शेखावाटी की कलात्मक हवेलियों में भित्ति चित्रों की दुर्दशा देखकर एक विदेशी महिला नदीन ला प्रैन्स ने एक हवेली खरीदकर उसका पुनरुद्धार करवाया और वहाँ एक सांस्कृतिक केन्द्र बनाया। इसमें भारत और फ्रान्स के चित्रकारों की एक प्रदर्शनी भी लगाई गई।
राजस्थान की प्राचीन सभ्यताए pdf
राजस्थान की प्राचीन सभ्यता प्रश्न उत्तर
1 . राजस्थान के किस क्षेत्र से शैल चित्रकला के प्रमाण मिले है?
उत्तर – विराटनगर में पौराणिक शक्तिपीठ, गुहा चित्रों के अवशेष, बोद्ध माथों के भग्नावशेष, अशोक का शिला लेख और मुगलकालीन भवन विद्यमान है।
2 . मछली पकड़ने के कांटे का प्रयोग किस सभ्यता में हुआ?
उत्तर – गणेश्वर सभ्यता से तांबे का बाण एवं मछली पकड़ने का कांटा प्राप्त हुआ है।
3 . बीजक की पहाड़ी कौनसी सभ्यता से संबंधित है?
उत्तर – बैराठ
4 . हनुमानगढ़ जिले में स्थित एक स्थान पर वर्ष 1952-54 में एक स्वीडिश दल द्वारा टीले की खुदाई का कार्य किस सभ्यता की जानकारी हेतु प्रारम्भ किया गया?
उत्तर -रंगमहल सभ्यता
5 . किस स्थल को ताम्रवती नगरी के नाम से भी जाना जाता था?
उत्तर -आहड़
6 . खडियाँ मिट्टी के बने विष्णु फलक’ गोवर्धन से, ‘धर फलक’ अजैकापाद से, चक्रपुरुष किस स्थान से प्राप्त हुए हैं?
उत्तर -रंगमहल
7 . अपने काल में उत्थनक नाम से विख्यात अरथूना ऐसा स्थान है जहाँ मंदिर व मूर्तियों का समय काल 10 से 12वीं शताब्दी के बीच का माना जाता है। उस समय यह स्थान बागड़ के राजाओं की राजधानी थी। किस जिले में स्थित है?
उत्तर -बांसवाड़ा
8 . कौन-से स्थल को धूलकोट’ भी कहा जाता है?
उत्तर – आहड़
9 . भीलवाड़ा जिले में कोठारी नदी के पास एक टीले का उत्खनन का कार्य वर्ष 1967 में डॉ. वीरेन्द्रनाथ मिश्र के निर्देशन में किस सभ्यता की जानकारियाँ प्राप्त करने हेतु शुरू किया गया?
उत्तर – बागौर सभ्यता
10 . गणेश्वर सभ्यता किस नदी के किनारे स्थित है ?
उत्तर – कांतली